जहाँ प्रेम है, वह स्थान आश्रम है।
जहाँ मोह है, वह स्थान गृहस्थ है ...
प्रेम, बेहद में है।
मोह, हद में है ...
प्रेम का धागा बहुत लम्बा होता है, बेहद में होता है।
मोह में कोई धागा नहीं होता, मोह आत्मा को हद में ले आता है, मोह आत्मा को बांध देता है ...
प्रेम वाला जो है, वो धीरज से हर काम करता है।
मोह वाला जो है, वो जल्दबाज़ी करता है, अस्त-व्यस्त रहता है ...
प्रेम जो है, वो deep rooted problems को ही खत्म कर देता है।
मोह जो है, वो ऊपर-ऊपर की चीज़ को ठीक करने की कोशिश करता है ...
प्रेम निःस्वार्थ होता है।
मोह में स्वार्थ छिपा होता है ...
प्रेम, निडर होता है।
मोह में डर छिपा होता है ...
प्रेम में हमें बदले में कुछ नहीं चाहिए। मोह में हम दूसरों से expectations रखते हैं, कि वह भी हमारे लिए कुछ करें ...
प्रेम आत्मा को स्वतंत्र करता है।
मोह आत्मा को परतंत्र बना देता है, मोह आत्मा को बांधता है ...
प्रेम में आत्मा दूसरे का कल्याण करती है।
मोह से ग्रसित आत्मा किसी का कल्याण नहीं कर सकती ...
प्रेम में सभी आत्माओं के लिए हमारे एक-समान नियम होते हैं, love में law समाया हुआ होता है।
मोह में हम नियम बदल देते हैं ...
प्रेम वाला हमेशा thankful रहता है, blissful रहता है।
मोह वाला, judgements, complaints और comparison करता है ...
प्रेम में कोई दिखावा नहीं है, वो अपने आप दिखता है।
मोह, खुद को जताता है, दर्शाता है ...
मोह, तुलना करता रहता हैै।
मोह वाला, दूसरों को झुकाने की कोशिश करता है ...
प्रेम वाली आत्मा, अच्छा सोचती है, तो अच्छा कर जाती है और ऐसी आत्मा किसी का बुरा होता देख नहीं सकती।
मोह वाली आत्मा, जो अच्छा सोचती है, तो अच्छा कर नहीं सकती ... और बुरा सोचती है, तो बुरा कर भी जाती है ...
प्रेम जो है, वो हर बात को लेता ही positive है।
मोह जो है ना, वो positive में से भी negative निकाल लेता है ...
प्रेम का रंग सदाबहार रहता है, वो बदलता नहीं।
मोह, अपने स्वार्थ अनुसार, रंग बदलता है ...
प्रेम किसी पर आधारित नहीं है, independeny है।
मोह हमें dependent बना देता है, बिना आधार के मोह का कोई अस्तित्व ही नहीं है ...
प्रेम, सिर्फ देना जानता है, उसके लिए सब मेरे हैं।
मोह, केवल अपना लाभ और हानि देखता है, अपना मतलब देखता है, मैं और मेरा देखता है, उसमें स्वार्थ है ...
प्रेम, पवित्र है।
मोह में पतितपना है ...
दिल में है प्रेम।
दिमाग में है मोह ...
प्रेम, ज्ञान है।
मोह, अज्ञान है।
• भाग्य बनता है, परमात्म प्रेम से।
जितना परमात्मा से प्रेम होता है, उतना ही उस पर निश्चय होता है ...
जितना निश्चय होता है, उतनी ही उनकी श्रीमत की पालना होती है ...
जितनी श्रीमत की पालना होती है, उतनी ही जीवन में, संस्कारों में पवित्रता आती जाती है ...
और जितनी पवित्रता आती जाती है, उतना ही परमात्मा से प्रेम भी बढ़ता जाता है - यह एक चक्र के भान्ति चलता रहता है।
• भगवान से जो हमारा शुद्ध प्रेम होता है, वो ही ज्ञान है, वो ही पवित्रता है ...
क्योंकि शुद्ध अर्थात् निःस्वार्थ प्रेम से ही भाग्य बनता है, और कोई ज़रिया ही नहीं है, भाग्य बनाने का...।
क्योंकि, कर्म से इंसान पल भर का भाग्य ज़रूर बना सकता है, परन्तु साथ में अपने रावण को, अर्थात् अहंकार को भी बड़ा कर लेता है ...
और प्रेम से सदाकाल का भाग्य बनता है, क्योंकि उससे राम बढ़ता है, अर्थात् हमारा स्वमान बढ़ता है।
• प्रेम का अर्थ है - जहाँ कोई माँग नहीं है, केवल देना है।
क्योंकि जहाँ माँग है वहाँ प्रेम नहीं है, वहाँ केवल सौदा है।
जहाँ माँग है, वहाँ प्रेम बिल्कुल नहीं हो सकता, क्योंकि वहाँ लेन-देन है और अगर यह लेन-देन ज़रा सी भी गलत हो जाए, तो जिसे हम प्रेम समझते थे वह घृणा में परिवर्तित हो जाता है।
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धन्यवाद
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